Bhagavad Gita As It Is DAY-68 (18.49-58)

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KG - Professional Development

37 Qs

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Bhagavad Gita As It Is DAY-68 (18.49-58)

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KG - Professional Development

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37 questions

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1.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

5 mins • 1 pt

क्या शब्द सूचित करते हैं कि वास्तविक संन्यासी कोई भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता? (18.49)

असक्तबुद्धिः

जितात्मा

विगतस्पृहः

नैष्कर्म्य

2.

MULTIPLE SELECT QUESTION

5 mins • 1 pt

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कृष्णभावनामृत में स्थित व्यक्ति कैसे वास्तव में संन्यासी है? (18.49)

वह सोचता है कि अपने कार्य का फल स्वयं भोगना चाहिए

भगवान् के लिए कार्य करने से वह संतुष्ट रहता है

वह कृष्णसेवा से मिले दिव्य सुख से परे आनन्द ढूंढता है

वह किसी भी भौतिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं होता

बिना संन्यास ग्रहण किये ही नैष्कर्म्यसिद्धि प्राप्त कर लेता है

3.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

5 mins • 1 pt

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योग की सिद्धावस्था क्या कहलाती है? (18.49)

योगारूढ़

योगरुरुक्षुः

योगभ्रष्ट

योगेश्वर

4.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

5 mins • 1 pt

जैसा कि गीता 3.17 में पुष्टि हुई है – यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्– जो व्यक्ति अपने में ________ रहता है, उसे अपने कर्म से किसी प्रकार के बन्धन का भय नहीं रह जाता | (18.49)

दुःखी

खोया

संतुष्ट

व्यस्त

त्रस्त

5.

MULTIPLE SELECT QUESTION

5 mins • 1 pt

कोई व्यक्ति केवल अपने वृत्तिपरक कार्य मे लग कर कैसे परम सिद्धावस्था अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है? (18.50)

यदि वह कार्य भगवान् के लिए किया गया हो

यदि वह कार्य शास्त्रविरुद्ध भोगेच्छा के लिए किया गया हो

यदि मनुष्य अपने कर्म के फल को ही भगवान् की तुष्टि के लिए त्याग दे

6.

MULTIPLE SELECT QUESTION

5 mins • 1 pt

मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित होकर आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होने तक की यात्रा में क्या-क्या करना होता है? (18.51-53)

बुद्ध्या विश‍ुद्धया युक्तो - बुद्धि से शुद्ध होकर

धृत्यात्मानं नियम्य च - धैर्यपूर्वक मन को वश

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा - इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग

रागद्वेषौ व्युदस्य च - राग तथा द्वेष से मुक्त

यतवाक्कायमानसः - शरीर, मन तथा वाणी को वश में

7.

MULTIPLE CHOICE QUESTION

5 mins • 1 pt

कौन सा शब्द सूचित करता है कि आत्मसाक्षात्कार का पथिक थोड़ा खाता है या आवश्यकता से अधिक नहीं खाता? (18.51-53)

विविक्तसेवी

लघ्वाशी

निर्ममः

परिग्रहम्

वैराग्यं

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